भाषा न केवल संचार का एक माध्यम है अपितु यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से भी बेहद महत्त्वपूर्ण है। भाषा विचारों, मान्यताओं और रीति-रिवाजों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का भी कार्य करती है।
भाषा साहित्य, संगीत एवं अन्य कलात्मक विधाओं की अभिव्यक्ति का भी मूल आधार है। किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी उसकी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन मात्र से प्राप्त की जा सकती है।
आज के इस आधुनिक युग में जहां सूचना प्रौद्योगिकी का विकास अपनी पराकाष्ठा पर है, दिन-प्रतिदिन तकनीकी के क्षेत्र में समूचा विश्व नयी उपलब्धियां हासिल कर रहा है, ज्ञान-विज्ञान की दिशा में भी निरंतर अनुसंधान किए जा रहे हैं, जिन सूचनाओं को प्राप्त करने के लिए पहले हमें महीनों लग जाते थे अब उन्हीं सूचनाओं को महज़ एक गूगल सर्च के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, ऐसे में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस प्रौद्योगिक क्रांति के दौर में हिंदी की भूमिका को कैसे सशक्त किया जाए।
भाषा समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एक सेतु का कार्य करती है जिससे सामाजिक समरसता बनी रहे, ऐसे में किसी भी समाज के लिए अपनी भाषा को संरक्षित रखना, उसके प्रचार-प्रसार की दिशा में कार्य करना और नई पीढ़ी को अपनी भाषा के साथ जोड़ना बेहद आवश्यक हो जाता है।
अंग्रेजी आक्रांताओं को इस बात की खबर थी कि अगर किसी भी समाज की सांस्कृतिक विरासत एवं उसकी अस्मिता को नष्ट करना हो तो हमें पहला आघात वहां की भाषा पर ही करना चाहिए।
यही वजह थी कि सन् 1835 को जब लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा नीति लागू की थी तो उसका एकमात्र उद्देश्य अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य स्थापित करना और भारतीय भाषाओं में हो रहे अध्ययन-अध्यापन को रोकना था।
भाषा किसी समाज की समृद्धि सांस्कृतिक विरासत के संवाहक के रूप में कार्य करती है।
महात्मा गांधी भाषा के महत्त्व को भली-भांति समझते थे। वे कहते थे कि पराधीनता चाहे राजनीतिक क्षेत्र की हो या भाषाई क्षेत्र की, दोनों ही एक-दूसरे की पूरक और पीढ़ी-दर-पीढ़ी को सदा पराधीन बनाये रखने वाली है।
उनका मानना था कि देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए एक राष्ट्रभाषा का होना अनिवार्य है। गांधी जी कहते थे कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है, इसलिए देश के अधिकांश क्षेत्रों में बोली एंव समझी जाने वाली हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रुप में प्रतिष्ठित एवं स्थापित कर देना चाहिए। यही कारण था कि भारत लौटने के कुछ ही समय बाद सन् 1918 में इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन में गांधी जी ने कहा था कि जैसे ब्रिटिश अंग्रेज़ी में बोलते हैं और सारे कामों में अंग्रेज़ी का ही प्रयोग करते हैं, वैसे ही मैं सभी से प्रार्थना करता हूं कि हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए।
सन् 1936 में जब महात्मा गांधी ने महाराष्ट्र के वर्धा जिले में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की तो उनका उद्देश्य समिति के माध्यम से हिंदी को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित एवं प्रसारित करना ही था।
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में जब सन् 1975 में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन (10 जनवरी- 14जनवरी) का आयोजन हुआ तो उसमें हिंदी को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने एवं एक अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के निर्माण की बात कही गई। एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी शिक्षण का केंद्र बने, जो भारत ही नहीं अपितु वैश्विक स्तर पर हिंदी को स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का कार्य कर सके।
सन् 1997 में जब यह संकल्पना महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के रूप में फलीभूत होकर धरातल पर उतरी तो इसका उद्देश्य क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी का सम्यक विकास करना, हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का सुसंगत प्रयास करना एवं हिंदी को जनसंचार, व्यापार, प्रबंधन, विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा, तथा प्रशासनिक कामकाज की भाषा के रूप में दक्ष बनाना और हिंदी को रोजगार से जोड़ना था।
हिंदी भाषा को अगर युवा पीढ़ी के बीच प्रतिष्ठित करना है तो हमें हिंदी को रोजगार से जोड़ना ही होगा जिसमें ऐसे विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों की भूमिका बढ़ जाती है जो कि हिंदी के माध्यम से ही अध्ययन-अध्यापन कर रहे हैं, उन्हें शिक्षण के साथ-सथ समाज की मानसिकता को बदलने के क्रम में भी प्रयास करना होगा।
वर्तमान समय में उच्च शिक्षा से लेकर सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा केंद्र बिंदु की तरह अपना स्थान ग्रहण कर चुकी है।
भारत का युवा वर्ग भी अंग्रेजी शिक्षा के साथ खुद को अधिक सहज महसूस करता है, देश भर में जगह-जगह पर ‘इंग्लिश स्पीकिंग क्लासेस’ खोली जा चुकी है जहां हजारों की संख्या में युवा लड़के-लड़कियां अंग्रेजी सीखने के लिए लाखों रूपए तक खर्च कर रहे हैं।
वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में अंग्रेजी का प्रभाव पूरी दुनिया पर है और इस सत्य को झूठलाया नहीं जा सकता, परंतु क्या इतना कह लेने भर से यहां हमारी कोई जिम्मेदारी और जवाबदेही तय नहीं होती? अंग्रेजी का जो वर्चस्व है, वह तो रहेगा ही परंतु क्या सूचना प्रौद्योगिकी, ज्ञान-विज्ञान की चीजों को हमें अपनी भाषा में लाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए?
सूचना क्रांति के इस दौर में हमें हिंदी में सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न पहलुओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए शिक्षण एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता है। हिंदी में अधिक से अधिक डिजिटल सामग्री, जैसे ई-बुक्स, ऑनलाइन पाठ्यक्रम, और शैक्षणिक सामग्री का निर्माण किया जाए। हिंदी में टाइपिंग, अनुवाद और अन्य तकनीकी टूल्स का विकास किया जाए ताकि लोग आसानी से हिंदी में काम कर सकें। सरकारी वेबसाइटों और सेवाओं को हिंदी में उपलब्ध कराया जाए, जिससे आम जनता को जानकारी प्राप्त करने में सुविधा हो। सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से भाषा अनुवाद और भाषा से संबंधित अन्य सेवाएं भी विकसित की जा सकती है। इससे न सिर्फ युवाओं की पहुंच बढ़ेगी बल्कि हिंदी के माध्यम से रोज़गार के अवसरों का भी सृजन होगा।
शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी को सशक्त बनाने की दिशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, २०२० की एक अहम भूमिका है, अगर इसका क्रियान्वयन सही ढंग से किया जाए तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से प्राथमिक और उच्च शिक्षा स्तरों पर शिक्षा के लिए क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग पर बल दिया गया है इसका अर्थ है कि विश्वविद्यालयों में हिंदी जैसी भारतीय भाषाओं को प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया जा सकेगा।, इस नीति में पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा में मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने का सुझाव भी दिया गया है।
इसी क्रम में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने देश भर के 14 कॉलेजों को हिंदी, मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मलयालम, असमिया, पंजाबी और उड़िया सहित 11 क्षेत्रीय भाषाओं में चुनिंदा इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों की पेशकश की अनुमति दी है।
शिक्षा मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं में पाठ्यपुस्तकों के लेखन के लिए पहल शुरू की है। इसका उद्देश्य विभिन्न विषयों के भारतीय भाषाओं में अनुवाद और पुस्तक लेखन के लिए एक मजबूत तंत्र का निर्माण करना होगा।
नई पीढ़ी को हिंदी से जोड़ने के लिए सबसे पहले हिंदी को ज्ञानार्जन की भाषा के रूप में स्थापित करना होगा, अगर हम इस कार्य में सफल हो गए, तो हिंदी ज्ञानार्जन के माध्यम के बाद स्वयं ही धनोपार्जन का माध्यम भी बन जाएगी, तब जाकर ही नई पीढ़ी को हिंदी से जोड़ने की संकल्पना साकार हो सकेगी।
रिपोर्ट- आशीष रंजन चौधरी ( संपादक, सम्यक भारत )
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