भारतीय संस्कृति: अब जब कि सारी दुनिया ज्ञान के निरौपवेशिकरण और उसकी सांस्कृतिक निर्मिति की दीवानी हो रही है यह जानना महत्वपूर्ण है कि सांस्कृतिक प्रतीक समस्त दुनिया में अपने उत्थान की तरफ होंगे | इसका मतलब यह है कि फिर से सांस्कृतिक ज्ञान, मूल्यों और उन पर आधारित राजनीति, समाज और प्रशासन का उत्थान होगा | इसकी कुछ झलक तुर्की द्वारा मस्जिदों के उद्धार , भारत में राम मंदिर का उद्धार और मास मिडिया द्वारा उत्तर आधुनिक समाज में इस प्रकार की घटनाओं को गौरवान्वित कर के परोसने का अंदाज़ में देखी जा सकती है | लोग अपने नाम में अपने धर्म, जाती, कुल को प्रदर्शित करने में ट्रेंड और फैशन महसूस कर रहे हैं |
क्या आधुनिक समाज विज्ञानं की तरह निरपेक्ष हो पाएगा और क्या विज्ञान भी निरपेक्ष रह पाया ? एक तरफ विज्ञान और आधुनिक समाज का सार्वभौम यूटोपिया है और दूसरी तरफ अपने ऐतिहासिक सांस्कृतिक यथार्थ से परिचालित अभिकर्ता और वास्तविक समाज | आदर्श के लिए यथार्थ को छोड़ने वाले समाज में कम ही हैं इसलिए इस यथार्थ के महत्त्व को कम कर के नहीं आँका जा सकता |
हर सामाजिक घटना का सैद्धान्तिकरण करना विज्ञानं और आधुनिक ज्ञानानुशासनों की प्रकृति है | इनके सिद्धांतों का आधार ही वैज्ञानिकता और तर्क है | अब यह माना जाने लगा है कि विज्ञान भी एक प्रकार की विचारधारा ही है और कमोबेश सापेक्ष है | तो हमारे पास सापेक्षता को मूल्य मानने वाली संस्कृति के अलावा वह कौन सा बल बचता है जो हमारे व्यवहार को नियंत्रित करता है ? शायद वह मनुष्य की सामजिक उत्तरजीविता को सुनिश्चित करने के लिए किया गया सामाजिक अनुबंध हो – विज्ञान भी एक प्रकार का सामाजिक अनुबंध ही है जिसे समाज अपने ज़रूरत के हिसाब से बदलता रहा है | विज्ञान दार्शनिक कुहन के प्रतिमान विस्थापन भी इसकी स्वीकृति करता है |
लोकतान्त्रिक फ्रेमवर्क के अन्दर सांस्कृतिक आकांक्षाओं की भूमिका तय करनी होगी और राष्ट्रों एवं समाजों को संवाद के माध्यम से प्रगति की परिभाषा को साझा रूप से तय करना होगा क्योंकि धरती पर मनुष्य का साझा अस्तित्व ही है और वह बिना संवाद के तय नहीं किया जा सकता | इन संस्कृतियों और इसके प्रतिनिधि व्यवहारों का रूप तय करेगा कि कैसा संवाद कायम रखा जा सकता है | भारत में समय में गत सांस्कृतिक प्रतीकों का उत्थान देखा गया है लेकिन इनके कारणों को जाने बिना यह नहीं कहा जा सकता कि यह सांस्कृतिक उत्थान है या सांस्कृतिक प्रतीकों का ट्रेंड में आना एक फैशन या उत्तर आधुनिक समाज की प्रवृत्ति है?
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हमारी परिकल्पना है कि सापेक्षता और संस्कृति लोगों के व्यवहार को सामान्य रूप से प्रभावित करते हैं| लेकिन, व्यक्तिगत विभिन्नताएँ जो व्यक्ति की जेनेटिक या जन्मजात विशेषताओं पर निर्भर हैं वो भी इसमें भूमिका निभा सकती हैं | कुल मिलाकर समाज को संस्कृति और व्यक्ति का अभिकर्तृत्व ( एक सामान्य कारक और एक विशेष कारक) ही स्थिति व दिशा देते हैं | संस्कृति सापेक्षता का एक छोर है तो व्यक्ति उसका दूसरा छोर | इस सापेक्षता की संख्या रेखा पर आते हैं व्यक्ति, क्षेत्रीय समूह, धार्मिक समूह, भाषाई समूह, और संस्कृति | इसका मतलब है कि व्यवहारिक सामजिक जीवन में व्यक्ति या समूह कैसे व्यवहार करेंगे इसे समझने के लिए सापेक्षता के स्तर या उनके विभिन्न संयोगों को समझना और उनके बीच की अंतर्क्रियाओं को समझना अनिवार्य है | तात्पर्य यह है कि समाज में , अपने कार्यस्थल में आप का समायोजन तभी हो पायेगा जब आप इसे समझ पाएंगे | यह समझ क्रिटिकल होनी चाहिए इसमें सत्ता के व्यवहार की दूरगामी समझ होनी चाहिए और उसके प्रयोग के आशयों का उद्घाटन होना चाहिए | क्रिटिकल समझ सत्ता के स्वरूप और उसके दुराग्रहों को बेनकाब करती है |
भारतीय समाज में भी सामाजिक यथार्थ की सापेक्षता के कई स्तर हैं | व्यापक स्तर पर भारत की सांस्कृतिक निर्मिति हिन्दुओं से हुई है | यहाँ के जेनेटिक पूल में हिंदुत्व है | इसलिए यह एक बहुत मजबूत प्रतीक है | या तो इसका इस्तेमाल व्यवस्था बनाने या भीड़ जुटाने के लिए किया जा सकता है या इसका नकारात्मक प्रयोग भी किया जा सकता है | ऐसा किसी भी धर्म, रिलिजन या के साथ किया जा सकता है क्योंकि मनुष्य में स्वाभाविक रूप से समूह बनाके रहने और साझे हितों के लिए समझौते करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है |
धार्मिक व्यवस्था के अंग के रूप में जाति व्यवस्था अपने वर्तमान स्वरूप में स्वीकार नहीं की जा सकती यह विदित है | लेकिन इस से हिन्दू धर्मं का फलक छोटा नहीं हो जाता | इसमें सुधार की गुंजाइश हमेशा रही है बल्कि यह बहुत ही प्रगतिशील धर्म रहा है जिसमें विचारों के बाहुल्य और आस्थाओं के टोटकों के वैविध्य के बहुतेरे विकल्प हैं | सुधार आवश्यक है और वह होते रहना चाहिए | वह किसी भी व्यक्ति या संस्था के जीवित रहने के लिए आवश्यक है | क्या सुधार का अर्थ पूर्ण रूपांतरण भी हो सकता है | संभवतः हाँ या ना भी | हिंदुत्व भारत की सांस्कृतिक सच्चाई है | यह कितना वांछनीय है या नहीं है यह बात उसके वर्तमान स्वरूप की कमियों की उचित समीक्षा का विषय है जिसे संवाद से ही तय किया जा सकता है |
भारतीय परिप्रेक्ष्य में जैसे ही हिंदुत्व की चर्चा होती है राम का ध्यान सीधा चला आता है | राम हिंदुत्व के प्रतीक हैं और इसीलिए उन्हें मूर्तिमान धर्म और मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहते हैं | इसलिए हिन्दू समाज राम के नाम पर सबसे ज्यादा गतिशील होता है | हालांकि बदलाव हुए हैं और विभिन्न विचारधाराओं ने इस प्रवृत्ति को बदला भी है लेकिन आज भी राम के इस स्वरूप का प्रयोग सांस्कृतिक प्रतीक, पुनरोत्थान एवं राजनीतिक गुटबंदी के लिए किया जाता है | दक्षिण पंथ की राजनीति की धुरी ही राम हैं | दरअसल दक्षिणपंथ भारत के सांस्कृतिक यथार्थ को स्वीकार करता है | इस सांस्कृतिक यथार्थ को स्वीकार करने में मुख्य चुनौतियाँ वाम पंथ एवं प्रगतिवाद की विचारधाराओं ने प्रस्तुत की हैं |
समानता का आदर्श निस्संदेह निर्विवाद है लेकिन क्या हिन्दू संस्कृति में धर्म में समानता का कोई विचार ही नहीं है ? क्या संस्कृति को नष्ट किये बिना समानता और समता नहीं लाइ जा सकती ? क्या ईरान और उत्तर पश्चिम एशिया की वे संस्कृतियाँ जो इस्लाम द्वारा नष्ट कर दी गईं वो आज ज्यादा लोकतान्त्रिक हैं? क्या आधुनिकता और विज्ञान की विचारधाराएं संस्कृति की विचारधारा पर हमेशा भारी रहेंगी ? क्या अब भी, जब विज्ञान और आधुनिकता को भी विचारधारा की श्रेणी में ही रखा जा रहा है ? ये प्रश्न समकालीन मानव समाज के सामने सर्वथा यक्ष प्रश्न की तरह खड़े मिलेंगे | सांस्कृतिक यथार्थ और विज्ञान के मध्य एक संवाद विकसित करना मानव समाज की वृहत्तर आवश्यकता है | इसके साथ सांस्कृतिक यथार्थ सूक्ष्म स्तर पर कैसे प्रकट होता है और कैसे अनुभूत होता है इसका विमर्श भी आवश्यक है | राम व्यवहार में कैसे आएँगे इस पर विमर्श होना चाहिए | केवल जपने और ओढ़ने से नहीं – विमर्श, आत्मचिंतन और व्यव्हार में राम को लाने से ही एक सभ्य, बेहतर हिन्दू संस्कृति की रचना हो सकती है |
राम जपो या न जपो राम का मतलब जान
तभी सफल होंगे तेरे बल बुद्धि और ज्ञान
राम शबरी की कुटिया में फोटो खिंचाने और वोट माँगने नहीं गए थे | अच्छे कर्मों को प्रदर्शन की जरुरत नहीं होती | यह कर्म योग है | राम पर विमर्श जारी रहना चाहिए | जब भारतीय राम पर रील बनाना छोड़ उनको फील करना शुरू करेंगे जब वो स्वयं वैसा आचरण करेंगे तो स्वयं समाज में सकारात्मक बदलाव होंगे और संस्कृति का उत्त्थान होगा | राम मीडिया के नहीं अंतरात्मा में होने चाहियें |नाम में क्या रक्खा है ? जपने से ज्यादा अपने आप को बदलना होगा नहीं तो मुंह में राम बगल में छुरी जैसी कहावतें ही समाज में लोगों के व्यवहार को तय करेंगी |
~डॉ. चन्द्र शेखर पाण्डेय
( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा महाराष्ट्र में सहायक आचार्य हैं )