Cinema: जब इंटरवल के पहले चल गई इंटरवल के बाद वाली फिल्म – ऋषि राज शुक्ला

जब इंटरवल के पहले चल गई इंटरवल के बाद वाली फिल्म

अब सिनेमा से जुड़ाव तो था ही, एकाद बार सिनेमाघर के चक्कर भी लगा लिए थे, सिनेमा घर मुझे अब घर सा लगने लगा था, उस वक्त उम्र लगभग 14 से 15 पंद्रह वर्ष के करीब रही होगी जब रितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ की फिल्म वॉर रिलीज हुई थी. फिल्म की हाइप ईतनी बनी थी की की मन बार-बार कह रहा था कि यह फिल्म देखने जरूर जानी है. अंतिम अक्टूबर का महीना था ठंड की शुरुआती हुई थी. दिमाग में योजना तो बना ही ली थी कि अब फिल्म देखने जानी ही है. हमारे शहर में सिनेमाघर नहीं था, शहर से 25 किलोमीटर दूर सतना में सिनेमाघर था.

उन दिनों मेरे पास पैसे-वैसे ज्यादा रहते नहीं थे, शहर से 25 किलोमीटर दूर फिल्म देखने जानी थी घर से परमिशन भी नहीं थी और कोई साथी भी नहीं था. किसी साथी की तलाश कर ही रहा था कि मेरे दोस्त ने प्रस्ताव को स्वीकार लिया और बोला दोनों भाई चलते हैं. योजना बन गई साथी मिल गया, अब सबसे मुश्किल कार्य था घर वालों को कैसे मनाए? माताजी से कहा की दोस्त का जन्मदिन है और उसके घर में निमंत्रण है, कुछ समय बाद आ जाऊंगा. दिल की धड़कनें तेज थी, मन में डर था लेकिन रितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ के एक्शन देखने का उत्साह भी था. तो बस इसी उत्साह को लिए हम आ पहुंचे शहर से 25 किलोमीटर दूर बनें सिनेमाघर में.

हम जिस सिनेमा घर में पहुंचे वो शहर में नया और शहर से थोड़ा निकल के था, तो हमें लगा यहां हमें कोई देखेगा नहीं इसलिए यहीं फिल्म देख लेते हैं. सिनेमा घर पहुंचे टिकट कटाई और अब फिल्म की शुरुआत हुई, शुरुआत से ही फिल्म के ऊपर शक हुआ क्योंकि फिल्म को शुरू होते कम से कम पांच या 10 मिनट लगते हैं, पूरी शुरुआत होती है अभिनेताओं के,निर्देशकों के नाम चलाए जाते हैं और उसके बाद फिल्म का टाइटल आता है. लेकिन इसमें कुछ नहीं दिखा, शुरुआत से ही लड़ाइयां हो रही है, कुछ भी समझ नहीं आ रहा था लग रहा था यह फिल्म देखने आए हैं इसमें तो कुछ है ही नहीं, जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी मन में चल रहा डर भी बढ़ रहा था. डेढ़ घंटे बाद जब फिल्म के मध्यांतर का समय आया तब फिल्म द एंड हो गई. तब पता लगा कि मामला ऐसा है कि इंटरवल के बाद वाला भाग सिनेमा घर के संचालक महोदय ने इंटरवल से पहले ही चला दिया. इसलिए फिल्म मध्यांतर के वक्त ही द एंड हो गई और यहां द एंड सिर्फ फिल्म का ही नहीं बल्कि दर्शकों के मन के उत्साह का भी हुआ.

सिनेमा घर के संचालक महोदय से कुछ देर बातचीत करने के बाद उन्होंने दर्शकों को दोबारा फिल्म दिखाने की बात कह शांत कराया. मध्यांतर के बाद फिल्म दोबारा शुरू होनी थी लेकिन शायद ऊपर वाले को मंजूर नहीं था कि हम फिल्म देखें. जैसे ही फिल्म दोबारा शुरू हुई मेरे फोन की रिंग बजी मैंने देखा मेरी माता जी का फोन था मन में डर तो था ही लेकिन फिर भी फोन उठा लिया. फोन उठाने पर पता लगा पिताजी का हाथ टूट गया है और उन्हें लेकर वो सतना आ रहे हैं. तुम भी अब घर वापस आ जाओ. यह सुनते ही मेरी रूह कांप उठी मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं. हमने तुरंत घर वापसी का फैसला किया और रास्ते पर खड़े हो बस का इंतजार करने लगे. डर यह था की कहीं रास्ते पर परिवार वाले मिल ना जाए. बस उस वक्त मन में यह प्रार्थना चल रही थी भगवान से की बस आज बचा लो अब से यह नहीं दोहराएंगे. इस मामले पर किस्मत अच्छी थी और भगवान ने हमारी सुन ली हम बिना किसी को पता लगे वापस घर पहुंच गए एक बहुत बेकार सा अनुभव लिए.

उस वक्त तो यह अनुभव बहुत खल रहा था, लेकिन आज वर्षों बाद जब उसे याद किया तो चेहरे पर मुस्कान आ गई. सोचा आप सब से यह किस्सा साझा कर दूं. और बताऊं की वॉर फिल्म देखने के लिए हमने कितने वॉर झेले थे. ऐसा कभी-कभी हो जाता है जब सिनेमा घर के संचालकों से थोड़ी भूल हो जाती है और वह तो उस सिनेमा घर का शुरुआती दौर था. इसलिए भूल- चूक हमने माफ कर दी. आज भी उस सिनेमा घर में जब फिल्म देखने जाते हैं तो वह पुरानी याद ताजा हो जाती है. यह किस्सा जब-जब किसी सज्जन से साझा करता हूं तो उन्हें इस पर विश्वास नहीं होता, उम्मीद करता हूं आपको हुआ होगा!

~ ऋषि राज शुक्ला

( सह-संस्थापक एवं सम्पादक सम्यक भारत )

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