Cultural: संक्रांति से समरसता – मनन्य सिंह निर्वाण

Cultural: भारत में प्राचीन काल से मनाया जा रहा मकर संक्रांति का पर्व, जिसे उतरायण, पोंगल, लोहड़ी, सक्रात, इत्यादि नामों से भी जाना जाता है; हिन्दू मान्यताओं में अनेक महत्व रखता है। हिंदू धर्म (सनातन, बौद्ध, जैन, सिख) में यह पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है।

ज्योतिष के अनुसार इस दिन भगवान सुर्यनारायण मकर राशि में प्रवेश करते है और उत्तरायण प्रारंभ होता है। हिंदू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु ने संसार को असुरों के आतंक से मुक्त करवाया था, यह मान्यता दक्षिण भारत में व्याप्त है। वहीं महाभारत के अनुसार, भीष्म पितामह ने उत्तरायण के दिन ही इच्छा मृत्यु ग्रहण की थी। विभिन्न क्षेत्रों में इस दिन से संबंधित विभिन्न लोककथाएं व्याप्त है। मकर संक्रांति को तिल संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस दिन तिल और गुड बांटने और दान करने का भारत के बड़े भू-भाग में प्रचलन है। तिल और गुड से बने लड्डू किसने नहीं खाए होंगे? ये लड्डू भारत के समाज को एक बड़ी सीख भी देते है।

भारत आज एकमात्र प्राचीन सभ्यता है जो अपनी पैतृक भूमि पर अनथकी फल – फूल रही है। “वसुधैव कुटुंबकम्” और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की कामना करने वाली संस्कृति ने अपनी शक्ति के चरम पर भी कभी किसी अन्य राष्ट्र पर आक्रमण नहीं किया, जब जब किसी पर आपदा आई भारत ने उन्हें शरण दी। भारत ने विश्व में ज्ञान का संचार किया जिसका प्रमाण तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, आदि प्राचीन काल के विश्वविद्यालयों के खंडहर अवशेष देते हैं। भारत ने विश्व को शांति का मार्ग दिखाने वाले महावीर और गौतम बुद्ध दिए। जब विश्व में अन्य संस्कृतियां स्त्री को भोग मात्र की वस्तु समझ रही थी तब भारत में स्त्री को वैभव, शक्ति और विद्या के रूप में पूजा गया और आराध्य का पद दिया गया। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ ऐसे समृद्ध राष्ट्र में धन, वैभव की कमी नहीं थी। व्यापार में भारत विश्व में सबसे अधिक भाग रखने वाला राष्ट्र था।

भारत की समृद्धि पर विदेशी आक्रांताओं की दृष्टि बनी रहती थी। विभिन्न कालखंडों में भारत पर विदेशी आक्रमण होते रहे परन्तु भारतीय समाज की एकता ने उनका प्रतिकार किया। हूण, शक, कुषाण, जैसे बर्बर जातियों को भारत की संस्कृति ने खुद में सम्मिलित कर लिया। जिसका कारण था यहां की संस्कृति में वास करने वाला सर्वधर्म सद्भाव का आचरण, परन्तु अनेक आक्रमणों के चलते इस आचरण में कमी आई और परिणामस्वरूप भारत कर्म आधारित वर्गीकृत एक समाज अनेकों जातियों में बट गया। जब से एक हिन्दू ने दूसरे हिंदू के साथ भोजन करना छोड़ा तब से भारत का विदेशी आक्रमण से प्रतिरोध की क्षमता कम होने लगी। निजी स्वार्थ के चलते विदेशियों को हमने ही आमंत्रित किया और उनका भारत पर शासन द्वारा खोला। मध्यकाल में हुए विदेशी आक्रमणों और शासन ने भारत के पुत्रवत हिन्दू समाज की संस्कृति और आस्था पर आक्रमण किया, उनके बाद यूरोपीय शक्तियों ने अपने शासन के दौरान हिंदू समाज पर बौद्धिक आक्रमण किए और हिंदुओं को स्वयं को हीन समझनेबपर मजबूर कर दिया। परिणाम, जो समाज कभी बर्बर जातियों को मानवता और शांति की राह दिखाता था उन्हें खुद में मिला लेने की क्षमता रखता था वह समाज स्वयं बिखर गया, बिखरते समाज की दुर्बलता के कारण उसकी मातृभूमि भी कटती गई।

आज हम विकसित भारत @2047 पर मंथन के रहे है परंतु क्या एक बिखरा समाज एक विकसित राष्ट्र का आधार बन सकता है?

हम बात करते हैं विश्वगुरु भारत की परन्तु क्या एक जातिवाद के अज्ञान में लिप्त समाज विश्व को ज्ञान देने का सामर्थ्य रखता है?

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मकर संक्रांति और तिल – गुड के लड्डू इन्हीं सवालों का जवाब देते है। मात्र एक तिल अपने आप में कोई बल धारण नहीं करता हल्का दबाव पढ़ने मात्र से टूट जाता है। तिल का ढेर भी लगा दिया जाए तो उसे हल्के से बाहरी बल का प्रयोग करके सरलता से बिखेरा जा सकता है। परन्तु जब उन्हीं तिल के दानों को गुड के साथ मिला कर एक साथ जोड़ दिया जाता है तो वह एक कठोर रूप ले लेता है जो सरलता से टूटता नहीं है और उसके गुणों में भी वृद्धि होती है। तिल की तरह छोटे छोटे भागों में बटे समाज को यदि अपने राष्ट्र की रक्षा करनी है, विकास करना है, उसे विश्वगुरु बनाना है तो इतिहास में हुई गलतियों को सुधारने की आवश्यकता है। समाज को जाति को हटा पुनः एक होने की आवश्यकता है लेकिन एक तिल के ढेर को बिखरा देना तो आसान है इसलिए तिल रूपी जातियों में बटे समाज को गुड रूपी भारत भक्ति में मिलाने की आवश्यकता है, इससे एक शक्तिशाली संगठित समाज का निर्माण होगा जो अपने राष्ट्र की रक्षा करने के लिए सामर्थ्यवान होगा।

तिल का लड्डू अत्यधिक बल देने से टूट भी जाता है, तिल फिर से अलग हो सकता है इसलिए आवश्यकता केवल सामाजिक – एकता की ही नहीं अपितु सामाजिक – समरसता की भी है। एकता को चिरस्थाई बनाने के लिए समरसता होनी अत्यावश्यक है। समरसता का अर्थ सामान रस में मिल जाना है। हम नमक और शक्कर को उनके ठोस रूप में मिला दें तो उन्हें सरलता से पृथक किया जा सकता है परंतु यदि हम नमक और शक्कर को पानी में डाल कर मिलाए तो वे एक दूसरे में ऐसे घुल जाएंगे के किसी का एक कण मात्र भी नहीं देख पाएंगे। भारतीय समाज को इसी प्रकार राष्ट्र भक्ति में घुलना पड़ेगा। परिवर्तन लाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वयं के प्रयत्न करने होंगे और उसका आरंभ स्वयं के आचरण में, स्वभाव में परिवर्तन करने से होगा। मैं अपने घर, गांव, मोहल्ले, कार्यस्थल, आदि स्थानों पर अपने आस पास के व्यक्ति की जाति नहीं पूछूंगा, मैं उसे वैसा ही सम्मान दूंगा जैसा में अपने परिवारजनों को देता हूं, मैं किसी भी व्यक्ति से जाति, पंथ, भाषा, प्रांत, आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करूंगा; ऐसे आचरण का विकास करने से समरस समाज का विकास होगा।

मकर संक्रांति का पर्व वास्तव में विशिष्ट है, संक्रांति का अर्थ होता है सम्यक दिशा में क्रांति और इस दिन किए जाने वाले दान और वितरण भी पुण्यदायक माना जाता है और यह पुण्य समाज को प्राप्त होता है। भारत के सुप्रसिद्ध संत रामसुखदास जी महाराज ने कहा था, “देने के भाव से समाज में एकता व प्रेम उत्पन्न होता है और लेने के भाव से संघर्ष”। सत्य ही कहा है! जब भारतीय समाज में परोपकार का भाव क्षीण हुआ और निजस्वार्थ बढ़ने लगा तब भारत दुर्बल हुआ है। एक सशक्त, समृद्ध और विकसित भारत के लिए समाज को एक शुभक्रांति (संक्रांति) के मार्ग पर ले जाना होगा और इस मार्ग का अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति को प्रथम अपने आचरण और स्वभाव में परिवर्तन लाना होगा।

मनन्य सिंह निर्वाण

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में अध्ययनरत छात्र हैं।)

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