संपादकीय: महाराज की जय हो – आशीष रंजन चौधरी

संपादकीय: महाराज की जय हो - आशीष रंजन चौधरी

सभ्यताओं के विकास के उपक्रम को अगर देखें तो रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मनुष्य की अगली सबसे बड़ी जरूरत अपनी मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति ही रही है।

शुरुआती दौर में अभिव्यक्ति का आधार बेहद सरल था, लोगों का एकमात्र उद्देश्य अपने मन के विचारों को सामने वाले व्यक्ति तक पहुंचाना ही होता था। परंतु चीजें जब गति के साथ आगे बढ़ती है तो उसमें सकारात्मक एवं नकारात्मक बदलाव दोनों आते हैं।

समूचे विश्व में लोमड़ी से भी अधिक अगर कोई चालक प्राणी है तो वो मनुष्य है। कुछ मनुष्यों की मंडली ने बड़ी जल्दी ही इस अभिव्यक्ति से स्वार्थसिद्धि का एक अनूठा फॉर्मूला ढूंढ निकाला।

उन्होंने अपने रिसर्च में यह पाया कि कोई भी मनुष्य क्यों न हो उसके भीतर कहीं न कहीं खुद की तारीफ सुनने की इच्छा बड़ी प्रबल होती है, इस इच्छाशक्ति का कोई ओर-अंत नहीं होता, चाहे मनुष्य कितने भी बड़े पद पर क्यों ना आसीन हो जाए। इतनी जानकारी मिलते ही बुद्धिजीवियों की मंडली ने एक आपात सभा बुलाई। सभा में यह सुनिश्चित किया गया कि आज के बाद जो कोई भी राजसिंहासन पर विराजमान होगा, भले ही वह कितना भी अयोग्य क्यों न हो? हमें निरंतर उसकी तारीफ में कसीदे पढ़ने हैं, उसका गुणगान करते रहना है।

इसके बाद क्या था? बुद्धिजीवियों की मंडली ने राजा के दरबार में हाजिरी देना शुरू कर दिया, प्रतिदिन दरबार में उनकी एंट्री राजा की एंट्री से पहले होती थी, वे इस ताक में रहते थे कि कब राजा साहेब आए और हम उनके सामने अपने हुनर की आजमाइश करें। वे जैसे ही राजा को दरबार में आते देखते सब के सब एक सुर में कहते “महाराज की जय हो, महाराज की जय हो।”, राज कभी-कभार ख़ुश होकर चंद अशर्फियां उनकी तरफ फेंक दिया करता था जिसको बटोरने में वे अपने जीवन की सार्थकता को देखते थे।

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समय आगे बढ़ता गया और तकनीक जैसे-जैसे उन्नत हुई तो बुद्धिजीवियों की‌ मंडली ने स्वार्थसिद्धि के और आसान उपाय तलाशने शुरू कर दिए और उसमें सफल भी हुए। वे राजसिंहासन पर बैठे व्यक्ति को रिझाने के लिए उसके लिए गीत-ग़ज़ल बनाते, आदमी भले ही सबसे बड़ा कायर क्यों ना हो उसको वीर पुरुष दिखाने के लिए झूठे किस्से-कहानियां रचते। सिंहासन पर बैठे आदमी ने भले ही जनता के लिए कभी कुछ ना किया हो, लोगों को गुमराह करने के लिए बुद्धिजीवियों की मंडली के लोग उसे बहुत बड़ा मसीहा बताया करते, उसके तारीफ में लंबे-लंबे लेख लिखा करते, कुछ बुद्धिजीवियों ने तो इस काम के लिए अखबार तक निकाल डाले थे।

राजाओं का दौर चला गया, राजसिंहासन भी नहीं रहें लेकिन बुद्धिजीवियों की मंडली द्वारा शुरू की गई प्रथा आज भी जीवित है, इसकी प्रासंगिकता कभी कम ही नहीं हुई बल्कि समय के साथ और भी बढ़ती चली गई। समूचे विश्व के कोने-कोने में आज भी इस प्रथा के संवाहक मौजूद हैं, जो बखूबी अपना काम कर रहे हैं।

आज भी सिंहासन पर बैठे व्यक्ति की महिमामंडन के लिए समूचे विश्व में निरंतर गीत गाए जाते हैं, कहानीयां रची जाती हैं और अखबार निकाले जाते हैं।

– आशीष रंजन चौधरी

संस्थापक, संपादक (सम्यक भारत)

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