Indian feminism: आओ आज जरा भारतीय नारीवाद पर बात करते है।नारीवाद पर भारत में भी दो तरह के मतप्रवाह है, एक मतप्रवाह के लोगों का कहना है भारतीय नारी को आजतक जानबूझकर समाज में असहाय, अबला बनाके रखा गया है। ये पुरुषी मानसिकता का प्रभाव है। और इसी पुरुषी मानसिकता के दबाव से भारतीय महिलाओं के साथ दुर्भाग्यपूर्ण एवं दोहरे तरीके का व्यवहार किया गया। पर क्या ये सच है? या विमर्श है ? इन सभी बातों पर हम खुली चर्चा करेंगे।
भारतीय संस्कृति और इतिहास में नारी का स्थान सर्वोच्च है। ऐसा माना जाता है और मैं भी ऐसा मानता हूं। हिंदू समाज में नारी को आदिशक्ति भी कहां जाता है पर इस पर एक मतप्रवाह के लोग ऐसा भी विमर्श खड़ा करते है की भारत ने और हिन्दू समाज ने नारी को गुलाम बना के रखा है। एक तरफ वह नारी को आदिशक्ति कहते है और उसी पे लैंगिक अत्याचार करते है। और उनके प्रति दोहरा रवैया रखते है।क्या ये सच है ? तो फिर
“बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी”।।
हमारे देश का बच्चा – बच्चा क्यों ऐसा कहता होगा? और कोन है ये झांसी की रानी? जिसे मर्दानी भी कहा गया, ये वह झांसी की रानी है जिस वक्त ना कोई व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी थी, ना तो विज्ञान का विकास और कुछ लोगो की माने तो लोग उस समय महिलाओं के प्रति गुलामीपूर्ण व्यवहार रखते थे। फिर आप कहेंगे एक झांसी की रानी का उदाहरण क्या सब महिला जाति पर लागू होगा? तो ऐसा एक मात्र उदाहरण कहा है, रानी अहिल्याबाई, चन्नमा, जीजाबाई, रानी गाईन्दिलू, सावित्रीबाई, रमाबाई रानडे, आनंदीबाई जोशी ये भी तो वही पुरूषी समाज में जीनेवाली महिलाए थी ना, आखिर ये भारत में सर्वश्रुत क्यों है? सोचनेवाली बात है ना। जो लोग खुद को विकसित कहते है उन देशों ने कभी महिलाओं के विकास के लिए कुछ किया है ? या उनके भगवान के स्थान पर महिलाओ को स्थान दिया है? ढूंढिए ! मिल जाए तो मुझे भी बताईयेगा। विकास का मापदंड सिर्फ पैसा नहीं होता तो संस्कार भी होते है और ये संस्कार हमारे देश की नारी देती है।
भारतीय नारीवाद पर हम बात करते हुए वर्तमान महिलाओं की स्थिति और उनके जीवन में हो रहे बदलाव को क्या समाज स्वीकार कर रहा है? इस बारे में चर्चा करेंगे।वैसे भारतीय नारी सशक्त बन रही है या पहले से थी इस पे भी भारत के बुद्धिजीवीओ में अलग – अलग मतप्रवाह है। लेकिन समान अवसर प्रदान किया जाए तो नारी भी पुरूषों की तुलना में कही भी कम नहीं है, हां इसमें शारीरिक और मानसिक तौर पर देखा जाए तो कुछ बदलाव हैं। उसी आधार पर विकसित समाज हो या विकासशील समाज, दोनों में महिला और पुरुष इनके समाजिक और पारिवारिक उत्तरदायित्व की सीमाएं निश्चित की गई हैं। और ये उत्तरदायित्व सिर्फ महिलाओ को ही नहीं तो पुरुषों को भी निभाने होते है।
तो फिर क्या नारी का काम बच्चे पैदा करना, उनको संभालना, परिवार के लोगो को खुश रखना इतना ही है! तो ऐसा बिल्कुल नहीं है, ये तो सिर्फ उसका उत्तरदायित्व है मजबूरी भी नहीं। आपने देखा होगा कभी– कभी अक्सर कहा जाता है की एक परिवार को अच्छे से चलाना ये नारी का धर्म है, और परिवार की आर्थिक जरुरते पूरी करना ये पुरुषों का धर्म हैं।
अब देखो इसमें कही भी ये नही कहा गया की ये मजबूरी है और इसे करना ही पड़ेगा। लेकिन जब सब व्यक्ति अपना उत्तरदायित्व अच्छे से निभाएंगे तो समाज अच्छे से चलेगा। लेकिन बच्चे को एक महिला ही क्यों संभालेगी, पुरुष क्यों नहीं ? तो प्रकृति का अलिखित नियम है और वह सिर्फ मनुष्य को नहीं अपितु पशुओं को भी लागू होता है, महिलाओं में मातृत्व का गुण है जो महिलाओं की तुलना में पुरुषों में कम है। इसी लिए बच्चों का लगाव मां के प्रति ज्यादा होता है। इसी लिए एक परिवार को अच्छे से महिला ही चला सकती है। जो परिवार को चला सकती है वो महिला अशक्त नही हो सकती सिर्फ उसको अवसर की जरूरत ह
~ दुर्गेश साठवणे
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में वर्धा समाज कार्य विषय के शोधार्थी हैं)