Mahakumbh: गंगा जमुना सरस्वती के संगम प्रयागराज में महाकुंभ का आगाज हो गया है दो महत्वपूर्ण स्नान बीत चुके हैं,कुल 40 करोड़ लोगों का आने का अनुमान है जिसमें मौनी अमावस्या के दिन ही 10 करोड लोग एक साथ आएंगे। विश्व में अब तक जो प्राप्त इतिहास है कहीं भी इतनी भीड़ आज तक कभी इकट्ठा नहीं हुई है ।इस भीड़ में जो सामूहिक चेतना व सामूहिक स्न्नान का पक्ष है वह विलक्षण पक्ष है क्योंकि एक साथ, एक निश्चित तिथि पर, एक निश्चित स्थान पर एक निश्चित समय पर,एक निश्चित उद्देश्य से, एक निश्चित आराधना पद्धति से इतने लोग इकट्ठा होकर के स्नान करेंगे,यह अद्वितीय है। यह ईश्वर का आवाहन करने वाली चेतनाओं का सामूहिकरण है। शास्त्रों में अब तक जो कुछ भी प्राप्त है उसके अनुसार व्यक्ति सदा सामूहिक प्रार्थना ही करता रहा है वह भी एक निश्चित अभीप्सा से एक निश्चित घड़ी में हम उन आध्यात्मिक शक्तियों का आवाहन कर रहे है तो उनके लिए इतना बड़ा क्षेत्र अवतरण के लिए कहां मिलेगा यही इसकी समूहगत दिव्यता और शक्ति के केन्द्रीयकरण का अवसर है। हमारे यहां व्यक्तिवादी प्रार्थना बहुत बाद में विकसित हुई जब व्यक्ति के अंदर अहंकार और लालच बढा तभी व्यक्ति ने व्यक्तिवादी प्रार्थनाएं स्वीकार की चाहे वह ऋषि आश्रम रहे हो, चाहे जो भी संस्थाएं रही हो सब में समूहगत प्रार्थनाएं और समूहगत रहने की व्यवस्थाओं का ही उल्लेख मिलता है। इस महाकुंभ का यह अवसर इसी सामूहिकता का जीता जागता पर्याय है। सामुहिकता की बात, प्रसिद्ध समाजशास्त्री एमिल देरखाइम सामूहिक चेतना की बात कह कर करता है की यही सामूहिक चेतना व्यक्ति गतिशीलता में वृद्धि करती है। हमारे इतिहास पुराण भी सभी इसी सामूहिकता के सहारे सबके उत्थान की बात करते हैं। यह महाकुंभ इसी जन उत्थान की वैचारिकी का एक विशाल मंच है।
यहाँ एक विराट भारत का अभ्युदय हो गया है जिसका परिवार पूरा विश्व है ,जिसकी अविरलता और गत्यात्मकता के प्रवाह की साक्षी गंगा जमुना सरस्वती नदियां है। जिस पर न जाने कितनी पीढ़ियां एक साथ इकट्ठा हुई और इस स्थल पर सामूहिक प्रार्थना हुई होगी। इसका साक्षी यहाँ उस भारत विराट पुरूष के विभन्न अंग अर्थात प्रमुख परंपराओं के आचार्य जगतगुरु, महामंडलेश्वर, संत, महात्मा स्त्री ,पुरुष विभिन्न देश काल के चिंतन के अखाड़े सभी एक साथ इकट्ठा होते है और एक साथ स्नान भी करते हैं तो शायद चेतना का जितना बड़ा सामूहिक क्षेत्र यहाँ निर्मित होता है उतना बड़ा क्षेत्र कहीं पूरी दुनिया में नहीं निर्मित है।यह कहा जा सकता है कि सामूहिक चेतना से निश्चित समय से जो प्रार्थनाएं की जाती हैं परमात्मा उससे ज्यादा जुड़ता है,वह यहां साक्षात चरितार्थ है।
इसका समाजशास्त्री पक्ष देखें तो आपको चारों तरफ केवल चेहरा ही चेहरा दिखाई देगा कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता आप किसी व्यक्ति को नहीं पहचान सकते, क्योंकि इतनी बड़ी भीड़ है तो किसी व्यक्ति को कैसे पहचानेंगे उसे पूरे भीड़ में फ़ेसलेस आदमी दिखाई देगा। कौन अरबपति है? कौन गरीब है? कौन कहां से आया है? किसी की कोई पहचान नहीं है जाति वर्ग उंच नीच और आय की दृष्टि से जो असमानता है यह सब कहीं दूर तक इसमें अपना प्रवेश नहीं कर पाती क्योंकि एक खास दिन पर एक खास वर्ष में एक खास समय पर सारी व्यवस्थाएं एक साथ सबके लिए समान अवसर उपलब्ध होता हैं। इसलिए जो क्षेत्र है पूर्व निर्धारित हो जाता है वही महाकुंभ का आवाहन है और उसके अनुसार लोग अपनी व्यवस्था के अनुसार सामूहिक प्रार्थना अर्थात सामूहिक स्नान में आते हैं।
हमारा देश अभी अपनी स्वतंत्रता का 75वां वर्ष अभी हाल में ही मनाया हमारे महान राष्ट्र की अखंडता, संप्रभुता और समृद्धि का प्रतीक यह महाकुंभ है यहां दुनिया की निगाहें लगी हुई सभी लोग उस सामूहिक प्रार्थना में शामिल होते हैं सभी लोग त्रिवेणी के उस संगम में स्नान करते हैं और सूर्य के उपासना करते हैं इसलिए समरसता का इतना बड़ा स्थल पूरी दुनिया में और कहीं नहीं और शायद एक बात और भी है कि व्यक्ति के मन में जब उसकी व्यक्तिनिष्ठता उसका अहंकार और उसकी संपत्ति जब विकृति पैदा करने लगती है तो उसमे समरसता का बोध कराने के लिए किसी प्रकार की कोई सरकारी मशीनरी काम नहीं करती है,इस दिशा केवल उसका गुरु काम सकता है और उसकी आध्यात्मिक शक्तियां कर सकती हैं और उसका सबसे पवित्र उत्तम स्थल यह महाकुंभ है जहां समरसता का बोध होता है क्योंकि गंगा यमुना स्वयं समरसता की प्रतीक है, त्रिवेणी का मिलन इसी बात का होता है कि यह विभिन्न प्रांतो से होता हुआ जल विभिन्न नदियों का समागम करता हुआ जल अंततः विलीन होकर के एकही जलधार बनती है। उसी प्रकार विभिन्न धर्मावलंबियों विभिन्न प्रांतो के विभिन्न मतावलंबियों के विभिन्न प्रतीकों, विभिन्न जाति के लोग आकर के इस महाकुंभ की उस त्रिवेणी में स्नान करके उस अखंड शौर्य भारत की कल्पना करते हैं जिसमें केवल भारत की पुरातन संस्कृति है और यह महाकुंभ का दिव्य नव्य स्वरुप ही दिखाई देता है। और यही है’वसुधैव कुटुंबकम’ का महामंत्र जो हमें महाउपनिषद ने दिया हैं। कुम्भ इसका साक्षात प्रयोग स्थल दिखाई दे रहा जो चाहे आकर इसमें अपना सात्मीकरण कर ले।
इस महाकुंभ में वह भारत है जो विचारों से इतना विराट है जहां वास्तव में असमानता व्यक्ति के भीतर भले हो लेकिन सामूहिक स्तर पर अभी वह प्रस्तुत नहीं हो पाई है यह भारत अमृत पुरुष है इसका धर्म सनातन है इसकी संस्कृति विश्वारारा है,सम्पूर्ण वसुधा इसका कुटुंब है और समस्त विश्व का उत्थान और कल्याण ही इसकी प्रतिज्ञा है, इसीलिए इतना बड़ा कुंभ का हमें दर्शन करने और समूहगत भाव को विकसित करने का सबसे बड़ा अवसर मिल रहा है।यह महाकुम्भ हमारी विराट सोच और परोपकारी दृष्टि और समूहगत सुकृत्य का केंद्र है जहाँ हम अपने हृदय में मंथन करेंगे और जो विष तुल्य मानवता व समाजविरोधी हमारे विचार हैं उनको छोड़ेंगे और सहकार और समरस भाव से इस अमृतकुंभ से सर्वसमानता रूपी अमृत पान करेंगे।
–प्रो. आर एन त्रिपाठी
(समाजशास्त्र विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी)
(पूर्व सदस्य उप्र लोक सेवा आयोग)