सन् 1947 में जब भारत को स्वतंत्रता मिल गई तब ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य हमेशा-हमेशा के लिए अस्त हो गया। पंडित नेहरू ने स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में जिम्मेदारी संभाली।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े विरोधीयों में से एक थे, वह भारत की स्वतंत्रता से काफी नाखुश थे। एक दिन, जब पंडित नेहरू लंदन में थे, तब चर्चिल और नेहरू की मुलाकात हुई, जो काफ़ी दिलचस्प भी थी।
चर्चिल के लिए यह एक अजीब स्थिति थी। उनके दिमाग में हमेशा यह विचार था कि भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता मिलनी असंभव थी, और अब वही व्यक्ति, जिसे उन्होंने हमेशा अपने दुश्मन के रूप में देखा था—पंडित नेहरू—उनके सामने खड़ा थे, वो भी भारत के प्रधानमंत्री के रूप में। चर्चिल के लिए यह एक व्यक्तिगत हार थी।
चर्चिल ने तंज कसते हुए नेहरू से पूछा, “नेहरू जी, आप कितने समय तक ब्रिटिश जेलों में रहे?”
नेहरू ने बिना किसी उत्तेजना के उत्तर दिया, “दस साल से अधिक के लिए”
“आपको वास्तव में हमसे नफरत करनी चाहिए।” चर्चिल की यह टिप्पणी की।
“आप गलत हैं, मिस्टर चर्चिल। हम ने एक ऐसे नेता के अधीन काम किया जिसने हमें दो चीजें सिखाई: किसी से कभी नहीं डरो और कभी किसी से नफरत मत करो। जैसे हम तब आपसे डरते नहीं थे, वैसे ही अब हम आपसे नफरत नहीं करते।”
नेहरू के इस जवाब में एक गहरी राजनीतिक और दार्शनिक दृष्टि छिपी हुई थी। उनका मानना था कि जब तक हम नफरत और बदला लेने के विचारों से मुक्त नहीं होंगे, तब तक हम शांति और समृद्धि की ओर नहीं बढ़ सकते। उनका यह बयान सिर्फ व्यक्तिगत संघर्षों का ही नहीं, बल्कि पूरी भारतीय राजनीति का भी आदर्श था—एक स्वतंत्र और सामूहिक दृष्टिकोण, जो कभी नफरत और हिंसा से प्रेरित न हो, बल्कि समानता, सम्मान और एकता पर आधारित हो।