Hindi v/s English: हम सभी एक ऐसे देश में रहते हैं जिसे हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान जैसे उद्धरणों से भी परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है। पर क्या आपको यह लगता है कि इसमें कोई खास अहमियत व्यक्ति स्वयं को देता है? ये सभी केवल अब कहने में अच्छा लगता है, जबकि वास्तविकता इससे कहीं ऊपर है। हम भले ही आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बहुभाषावाद का नारा बुलंद करना चाहते हों, पर आज भी हम केवल एक भाषा के आधार पर अपने समाज में लोगों के प्रति राय बनाते हैं, जिसे भारतीय समाज में सम्मानित शब्दों में अंग्रेजी भाषा की संज्ञा दी गई है। जब भारत में राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्थान देने की बात आई, तो इसका विरोध हुआ, और यह सहज था क्योंकि हिंदी को तभी भी सम्मानित नहीं माना गया था, और आज भी कमोबेश वही स्थिति है।
आज कहने को हिंदी के विस्तार के लिए संस्थाएं हैं, पर क्या ये गिनती की संस्थाएं अंग्रेजी के सम्मुख अपने को सम्मानित कर पाई हैं? कदापि नहीं। स्वयं के निजी अनुभव में महात्मा गांधी के हिंदी के सपने को साकार करने के लिए उनके नाम से वर्धा, महाराष्ट्र में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना तो हुई, परंतु आज भी यहां हजारों छात्रों में गिनती के दस छात्र हिंदी भाषी क्षेत्र के बाहर से हैं। यह हम सभी के लिए सोचने की बात है, क्या ये संस्थाएं अपने वास्तविक कार्यों को विस्तार करने का साधन बन सकी हैं, जो हिंदी भाषा का प्रचार करना था? क्योंकि यहां पढ़ने वाले छात्र खुद हिंदी के प्रकांड विद्वान बनकर घूमते रहते हैं।
कहने को एक बात जो यहां अंग्रेजी को पीछे छोड़ने का काम करती है, वह है वकालत, शिक्षाशास्त्र, संगणक आदि विषयों को भी हिंदी भाषा में पढ़ाया जाना। शायद यह संस्था अपने लगभग 20 साल पूरे करने के बाद आगे अपने उद्देश्यों में सफल होती दिखे।
एक और वास्तविकता का सामना गांधी की धरती पर स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय, गुजरात में हुआ। यहां मुझे पता चला कि गांधी के भाषा संबंधित विचारों का वास्तविकता में विरोध तो उनकी जन्मभूमि में ही है। जब हमें यह बताया गया कि आपकी पूरी शिक्षा व्यवस्था केवल अंग्रेजों की भाषा, अंग्रेजी में होगी, तो यह मुझे भाषा की समस्या से ज्यादा हास्यास्पद प्रतीत हुआ। गांधी ने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों को भारत से बाहर करने में लगाया, और आज उन अंग्रेजों की भाषा को अंतिम विकल्प के रूप में देश की नई पीढ़ी के शिक्षा दूतों को सम्मानित किया जा रहा है।
विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम कब अंग्रेजी ने अपने नियंत्रण में ले लिया, यह गांधी और भारतेंदु के देश में किसी को खबर नहीं लगी। आज जब विश्व के अनेक देश अपनी भाषा पर गर्व करते हैं, चाहे वह अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन जैसी यूरोपीय भाषाएं हों, या एशिया की धरती पर चीनी, जापानी, या अरबी भाषाएं हों, वहीं हम आज भी अपनी किसी भाषा की प्रमुखता पर ही विवाद उत्पन्न करते हैं।
अगर दक्षिण में हिंदी को थोपने की बात उठती है, तो उत्तर में दक्षिण की भाषाओं का नामोनिशान नहीं होता। समस्या यह नहीं है कि हमारे देश में हजारों भाषाओं में से कोई एक भी विश्वस्तर या भारत में ही सम्मानित भाषा का दर्जा न पा पाई हो, बल्कि समस्या यह है कि सम्मानित भाषा के रूप में 300 वर्षों की गुलामी सहने वाले अंग्रेजों की भाषा को सम्मानित नजरों से देखा जाता है।
यह एक ऐसा समय है जब आज का युवा खुद की पहचान को अंग्रेजी से जोड़कर देखता है। शायद मैं, आप, या कोई भी खुद को इससे केवल व्यंग्यात्मक रूप में अलग कर पाए हैं। आज भी जब अंग्रेजी में अभद्र भाषा का प्रयोग ‘कूल’ बताया जाता है, तो असम्मानित शब्दों की सम्मानित भाषा का दर्जा भी वही अंग्रेजी ले जाती है। मतलब आप कल्पना करें, आप अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, और सुन रहे व्यक्ति भी इस भाषा से सम्मानित हो चुके हैं।
खैर, बड़ी दुविधा तो उन युवाओं की है जिन्होंने इस सम्मानित भाषा का प्रयोग करना नहीं सीखा। अब गलती भी तो उनकी है, तीन शताब्दी की गुलामी के बाद भी अंग्रेजी को अपने में समाहित न कर पाए, तो उन्हें इसका दंश सहना ही चाहिए। यह केवल गांधी का देश नहीं है, बल्कि उन अंग्रेजों का भी है जिन्होंने पूरे तीन शताब्दी तक इस देश का ख्याल रखा।
वो तो भला हो उन अंग्रेजों का जिन्होंने जाते-जाते भी इस देश को अपनी सम्मानित भाषा भेंट में दी। क्या हो गया अगर एक युवा आज इस सम्मानित भाषा न आने की वजह से खुद को समाज, देश से अलग और कुंठित पाता है? क्या हो गया अगर वह खुद के विचारों को व्यक्त नहीं कर पाता? कुछ समय लगेगा, पर वह इस सम्मानित भाषा को सीख ही जाएगा। यह युवा आधी उम्र तो नहीं सीख पाया, शायद बची आधी उम्र में कुछ सीख ले।
बाकी यह व्यंग्य है या वास्तविकता, यह पाठक खुद निर्णय लें। यही हमारे लेख की सार्थकता होगी।
धन्यवाद!
अमल कुमार मिश्रा, परास्नातक शिक्षाशास्त्र
केंद्रीय विश्वविद्यालय, गुजरात, वडोदरा