शाम- ए वर्धा तेरे दिवाने भी बेशुमार हैं,
तू तपती धरती तो है ,परंतु सफल संजीवनी का हर एक मुकाम है।
वो दिसम्बर का माह, जब रखा यहां कदम
सुहाना मौसम हरियाली चारों ओर
कोई नहीं अपना पर देख रखा था सपना
कि कैसे तुम्हें पाऊं और सफल कहलाऊं
ताकि तुम नही ये सब कहे मै हू ना तेरा अपना।
”कहते हैं भय बिन होई ना प्रीत”
मेरे आलेख में इसका तात्पर्य है घर से लगभग 1300 km दूर इस बेगाने शहर में आना और ये सुनना यह परिसर साप और बिच्छू का बसेरा है परंतु आत्म इच्छा थी कि एकबार छात्रावास जीवन व्यतीत किया जाए और फिर क्या बन गया गृह त्यागी।
आज जिसका वृत्तांत लिख रहा हूं या गाथा शब्दों में कह रहा हूं यह वही वर्धा शहर का हिंदी विश्वविद्यालय है जहा न जाने कितने विद्यार्थी अपनी जिंदगी बनाने हर वर्ष आते हैं जैसा कि मै।
“आज लिख रहा हूं जो कहानी
वह मैं कह भी सकता था जुबानी
परंतु शब्दों की भी पुंज बनती रहे
मैं रहूं या ना रहूं पर ये शब्द मेरी इस धरा में गूंजती रहे।”
मैं शिक्षक बनने आया था
उसमे भी गुणा भाग हुआ
अब जोड़ रहा हूं एक एक कर
जो छूट गए थे घट – घटकर।
वर्धा की कहानी ज्यादातर खट्टी मीठी ही रही कुछ यादें आज भी कुरेदती है और कुछ ऐसी है जिसे याद कर बांछे खिल जाती है।
जिन्दगी के दो हिस्से होते ही हैं जिन्दगी जीना या जिंदगी को जीना ये दोनों अहसास मुझे यहां से अर्जन हुआ ।
आज मैं संघर्ष के उस पड़ाव पर हूं जहा सफलता की आस भी है और यह दृढ़ विश्वास यहां आने पर ही प्राप्त हुआ ।
सच्च कहा जाता है तप कभी बेकार नहीं जाता और शिक्षा तो वह शेरनी की दूध है जिसे जो जितना पिएगा उतना ही दहाड़ेगा।
बहुत लोगों से सुना है कि यहां का मौसम और लोगों के रंग क्षणिक हैं, हा कुछ तो सच्च मुझे भी लगा परन्तु वास्तविकता यह है, जहा तक मैं अनुभव कर पाया लगा कि जिस व्यक्ति का सामाजिक अंतःक्रिया या कहे समायोजन करने की क्षमता नहीं है वही सबसे ज्यादा दुखी है और ये शब्द ज्यादातर उन्ही लोगो के हैं। क्योंकि यहां सभी को खुले माहौल में विचरण करने की आजादी है ।लगाम और वो पिता भाई की डॉट नही है तो शब्दों की अल्हड़पन तो रहेगी ही हा जो इसमें रम गया उसका डंका बज गया।
पर मैं थोड़ा अंतर्मुखी था अल्हड़पन से काफी दूर रहता था जिसके कारण यहा के वातावरण में ढलना मेरे लिए एक अग्नि परीक्षा थी।
इसलिए आज मेरे पास दोस्ती भी सीमित है और मैं उन्हीं के साथ मस्त हूं और होना भी चाहिए क्योंकि विचारो का मिलना एक अच्छे रिश्तों की अटल विश्वास है।
यह शहर वाकई बहुत खूबसूरत है ऊंचे ऊंचे पहाड़ और हरी भरी वादियां और पठार पर स्थित मेरा हिंदी विश्वविद्यालय जहा जाने के लिए एकलव्य पथ की कठिन डगर से होकर गुजरना यही पथ है जो एहसास दिलाता है शिक्षा पाना आसान नहीं है शिक्षा छीनना होता है ज्ञान के लिए अनुभव बनाने पड़ते है संघर्ष और त्याग करना होता है ।
कहते हैं ना “
करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान । रसरी आवत-जात ते सिल पर परत निशान ॥ ”
अभ्यास और संघर्ष जारी है शिक्षकों का मित्रवत व्यवहार और प्रेरणा से आगे नित्य निरंतर लक्ष्य भेदने के अटल प्रयास में संघर्षरत हूं।
“और अंत में वर्धा शहर के लिए””
रंग जाऊंगा रंग में तेरे जैसे संत गजानन थे
जायेगी ना याद कभी भी जैसे वो दिन गुजरे थे।
ठंडी ठंडी हवा सुहानी ,मस्त खिली वो कलियां थी
देख जिसे कोयल भी कुहके जब याद तुम्हारी आती थीं।
आंवला , नीम, इमली और बरगद सबके सब हैं प्राण दाता
शुद्ध हवा के झोंके देखो नित्य नूतन गीत गाता।
– अभिषेक कुमार पाठक
छात्र, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा