कल किसने देखा है? हज़ारों लोगों का भविष्य बर्बाद करने के पीछे केवल इस एक वाक्य का हाथ है। हम आज के क्षणिक सुखों के खातिर अपने भविष्य की ज़रूरतों को मानो अनदेखा कर देते हैं।
छोटे बच्चों या युवा पीढ़ी के लिए तो मानो यह वाक्य उस अंदरूनी चोट की तरह है जो लगते वक्त तो नज़र नहीं आती पर आगे जाकर असहनीय तकलीफ में डाल देती है। हमारी सोच में आज की पार्टी आने वाली परीक्षा से ज़्यादा ज़रूरी है चाहे फिर एक साल बर्बाद कर अगले साल दोबारा परीक्षा क्यों न देनी पड़े, मगर पार्टी नहीं छूटनी चाहिए! कॉलेज की प्रवेश परीक्षा तो आती रहेगी अभी दोस्तों के साथ घूमना ज़्यादा ज़रूरी है फिर चाहे एक साल बर्बाद क्यों न हो जाए, ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा एक साल देरी से ग्रेजुएट होंगे। पहले दोस्तों के साथ घूम लेते हैं! वैसे भी कल किसने देखा है…? और ऐसा कहते-कहते ही कल आ जाता है। जब हम उस कल को देख लेते हैं तब हमारे मुख से केवल एक ही वाक्य निकलता है, “काश मैंने उस वक्त मेहनत कर ली होती…”, “काश मैंने उस वक्त पढ़ाई कर ली होती…”। उस वक्त व्यक्ति के पास पछताने के अलावा और कुछ नहीं होता। हम खुद मेहनत तो करते नहीं ऊपर से जो मेहनत कर रहा होता है, उसे भी पागल और बोरिंग जैसे नाम दे देते हैं।
कहीं न कहीं अपने भविष्य से प्यार करने वाले लोग हमारी सोच से मेल नहीं खाते क्योंकि उन्हें पता होता है कि उनके जीवन का लक्ष्य क्या है। जबकि इसके विपरीत, ‘कल किसने देखा है’ वाली मानसिकता का व्यक्ति यह जानता ही नहीं कि उसके जीवन का लक्ष्य क्या है उसे अपने जीवन में करना क्या है ?
ऐसा नहीं है कि जो व्यक्ति अपने भविष्य से प्यार करता है वह वर्तमान का आनंद नहीं लेता। वह व्यक्ति अपने वर्तमान का उतना ही आनंद उठाता है जितना दूसरे उठाते हैं परंतु ऐसे व्यक्ति के आनंद प्राप्त करने का ढंग भी सहज होता है। बिंदास होने और लापरवाह होने में एक पतली रेखा का अंतर होता है। जो व्यक्ति अपने भविष्य से प्रेम करता है वह बिंदास होता है जबकि अपने भविष्य से प्रेम न करने वाला व्यक्ति लापरवाह होता है और लापरवाही इंसान को पछतावे की ओर ले जाती है।
हम यह क्यों नहीं समझते कि अपने भविष्य की ओर ध्यान केंद्रित करना उतना ही ज़रूरी है जितना वर्तमान की ओर। मानव जाति दोहरी बातें करने की आदी है। एक तरफ हम कहते हैं, “कल किसने देखा है,” तो वहीं दूसरी ओर अपनी सुविधानुसार काम को टालने हेतु यह भी कहते हैं, “कल करेंगे” या “कल से पक्का करेंगे।” लेकिन तब हम यह क्यों नहीं सोचते कि “कल तो हमने देखा ही नहीं,” फिर कल कैसे करेंगे?
आगे जाकर यह ‘कल-कल’ करने वाली आदत ही हमारे खूबसूरत हाथों में पछतावा नामक पत्थर पकड़ाती है और कहती है, “ले, मार ले अपने सिर पर, क्योंकि दूसरा रास्ता तो वैसे भी तेरे पास नहीं है।” ‘कल-कल’ की आवाज़ नदियों पर जचती है, इंसानों पर नहीं।
कल पर सबसे ज़्यादा टाले जाने वाला कार्य है भक्ति। हम अक्सर यही कहते हैं, “भक्ति तो बुज़ुर्गों का काम है। जब हम बूढ़े हो जाएँगे, तब हम भी भक्ति कर लेंगे। अभी भक्ति करने की उम्र थोड़ी है हमारी?” पर हम यह क्यों नहीं सोचते कि ज़्यादातर बुज़ुर्ग व्यक्ति ही भक्ति क्यों करते हैं? इसका कारण यह है कि बुज़ुर्ग व्यक्ति इस दुनिया और जीवन को हमसे कई गुना बेहतर तरीके से समझते हैं। उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचते तक वे न केवल भगवान अपितु उन क्षणों का भी अनुभव कर चुके होते हैं जब ईश्वर ने उनकी सहायता की होती है। उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचते-पहुँचते उन्हें ईश्वर के अस्तित्व और उनकी शक्ति का अहसास हो जाता है। भक्ति कभी कल पर नहीं टालनी चाहिए। भक्ति का सबसे उत्तम समय तो युवावस्था ही है। क्योंकि एक उम्र के बाद तो जोड़ों का दर्द आम बात है। तब तीर्थ कैसे जाओगे? और अगर जाओगे भी तो क्या युवावस्था की तरह उछल-कूद कर पाओगे? तब दूसरे भक्तों को देखकर मन करेगा, “काश मैं भी इनकी तरह प्रभु के कीर्तन में नाच पाता।” और फिर एक पछतावा होगा कि “काश कुछ वक्त पहले ही यहाँ आया होता तो प्रभु के कीर्तन में नाचने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होता।”
यह एक कड़वी वास्तविकता है, जिसके उदाहरण हम अपने आस-पास बखूबी देखते हैं परंतु इसके बावजूद भी हम नहीं सुधरते। क्योंकि हम उस बॉलीवुड को फॉलो करने वाले लोग हैं, जो हमसे कहता है, “हम नहीं सुधरेंगे, थोड़ा और बिगड़ेंगे।”
वेदिका मिश्रा
शंकर नगर, वारासिवनी
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